
भटक रहा है डर-बदर वो
कौन है सहारा उसका ,
कोई नही अपना यहाँ पर
द्वार ख़त-खटाए वो किसका।
अन्तर मन असहाय पड़ा है
हौसला चूर-चूर है उसका
सहारा कौन देगा उसको
साया भी गुम चुका हो जिसका।
तन अग्नि में झुलस रहा है
भूमि मानो खारों की शैया।
कोई दाना मिल जावे कहीं से
गीली बूंद पड़ जावे जुबान पर,
नही चल रही शीण बुद्धि
जाए तो बेचारा जाए कहाँ पर।
हिम्मत-ऊर्जा , सब हार चुका है
"उठाले मुझको " पुकार रहा है,
सह नही पता जुल्म सृष्टि के
अकेला बैठा कराह रहा है।
द्वार खुला किसी झोपड़ का
देवी समान एक महिला आई,
हाल देख उस वृद्ध बशर का
"हे राम" चौंकी चिल्लाई,
घृणा झलकी अन्तर मन में
और एक आना वो भी दे आई।
अपनाया नही आने को वृद्ध ने
घुट-घुट कर वह रो रहा है,
ध्वनि न मुख से निकली उसके
पर नज़रों में झलक रहा है,
'' सहायता मांग रहा है वो
भीख नही वो मांग रहा है"।
1 comment:
THE WORLD IS SO MYSTERIOUS.INSTEAD OF HELPING HTE NEEDY DAY BY DAY IT IS BECOMING GREEDY.YOUR POETRY HAD TOUCHED THE SOUL.
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