Tuesday, December 23, 2008

चाँद तूने जीना ही सीखा

है मुस्कुराहट बिखेर रहा तू
गम को पेश कर रहा नहीं है ,
कुछ तो है छुपा मन में तेरे
मन को तू टटोल रहा नहीं है ।

चमक रहा इक-लौता है तू
फ़िर भी तुझे घमंड नहीं है ।
है सूना सा इस नभ में तू
फ़िर भी तू अकेला नहीं है ।
आबरु तेरी हो रही चका-चौंद
मन में तेरे तिमिर नहीं है ।

बस चांदनी इक हमराह है तेरी
संग आती संग जाती , संग रोत्ती-हस्ती है ,
तुमसे जग-मग तारों की मनडी
तुमसे रौशन निशा की बस्ती है ।
है शिकन गंभीर मगर
प्रभाविक तेरा तेज है
सजा तुमसे घूँघट रात का
अधीन तारों का सेज है ।

अदा युगों से है तेरी
हौसला सदियों पुराना है
नाम सदा से है तेरा
फ़िर क्यों बेनाम , बेगाना है ।

गम की बस्ती में तू है अकेला
अंधेर चट्टान पर कंकड़ उजेला
शीतलता की धारा थमी नहीं है
दिया सदा है , माँगा नहीं है
दाता तू , बस देना ही सीखा
तूने बस जीना ही सीखा ।

8 comments:

Mr Bisht said...

Your poem proved an important principle once again; wisdom is found at least expected places; You taught us how moon can be a teacher.

Nice write-up !

"अर्श" said...

बहोत खूब लिखा है आपने .....

Vinay said...

बहुत अच्छे!

बधाई!

"अर्श" said...

आपको तथा आपके पुरे परिवार को नव्रर्ष की मंगलकामनाएँ...साल के आखिरी ग़ज़ल पे आपकी दाद चाहूँगा .....

अर्श

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

Meynur said...

Umda rachna....!

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

bahut hi sunder rachna hai mitr bdhai hoo

Akhi said...

aap sabhi logo ka dil se bahut bahut dhanyavaad!!!!